जब ‘छूना’ वर्जित हो जाए और जीवन के लिए जरूरी ‘सांस’ भी जोखिमभरी हो जाए तो पूरी मानवता ही मुश्किल में आ जाती है। जब तक वायरस को रोक नहीं लिया जाता, ‘कोरोना के साथ जीने’ वाली स्थिति रहेगी। इसके लिए ‘पॉज’ बटन नहीं, ‘रीसेट’ बटन की जरूरत है। मन और जीने के तरीकों को रीसेट करना होगा।
प्यू रिसर्च सेंटर के एक सर्वे में 91% अमेरीकियों ने कहा कि वायरस ने उनके जीवन को बदल दिया है। करीब 77% रेस्त्रां नहीं जाना चाहते और 66% राष्ट्रपति चुनावों में वोट के लिए लाइन में लगने को लेकर सहज नहीं हैं। यह सब एक सूक्ष्म जीवाणु का असर है। जब देश में संक्रमण का आंकड़ा एक लाख के पार हुआ तो आजादी की एक तड़प दिखी।
इसलिए लॉकडाउन 4.0 पहले से पूरी तरह अलग रहा। यह तड़प बताती है कि हम शायद वायरस का सामना करने के लिए तैयार हैं क्योंकि जीवन बहुत लंबे समय तक बंधन में रहने से कहीं ज्यादा है। इस वायरस के फैलने से एक व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए दूसरे पर निर्भरता का जरूरी अंतरसंबंध सामने आया है।
यही अब हमारे रवैये और व्यवहार का आधार होगा। हमें सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखते हुए, एक दूसरे से सार्थक ढंग से जुड़े रहने और हर संभव मदद करने की जरूरत है। कोरोना के बाद क्लासरूम की जगह घरों ने ले ली है, सेमीनार वेबिनार में बदल गए हैं। एक स्वस्थ डिजिटल लाइफ उभर रही है, हालांकि इन साधनों तक सभी की बराबर पहुंच अभी मुद्दा है। नई आदतें कोरोना के साथ जीने के लिए जरूरी हैं।
लोगों की जिंदगियां बचाते हुए अर्थव्यवस्था का पुनरुद्धार इस समय मुख्य चुनौती है। पिछली शताब्दी के महामंदी के बाद अब वैश्विक अर्थव्यव्स्था ऐसी गंभीर गिरावट देख रही है। उत्पादन के केंद्र और अन्य आर्थिक गतिविधियां, इनमें शामिल लोगों की पूरी सुरक्षा के साथ ही शुरू हों।
कम समय में तेजी से पुराने उत्पादन स्तर को पाने की कोशिश की जगह धीरे-धीरे काम की नीति बेहतर होगी। इस वायरस ने स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर की अपर्याप्तता को सामने लाकर जनस्वास्थ्य पर जरूरी निवेश की आवश्यकता को भी रेखांकित किया है।
वायरस का फैलाव हमारे देश के आपसी सहयोग वाले संघवाद को भी सामने लाया है, जहां केंद्र और राज्य स्तर के नेतृत्व ने एक-दूसरे की बिंदुओं को लॉकडाउन 1.0 से 4.0 तक में समायोजित किया। यही भावना आर्थिक पुनरुद्धार के लिए उठाए जाने वाले कदमों का भी मार्गदर्शन करेगी। ऐसी परिस्थिति का सामना करने में बेहतर नतीजों के लिए शासन के तीसरे स्तर और स्थानीय समुदायों को भी और सशक्त करने की जरूरत है।
इतिहासकार और लेखक युवाल नोआ हरारी ने दुख जताया है कि कोविड-19 को लेकर वैश्विक प्रतिक्रिया आदर्श नहीं रही है। हर देश वायरस के खिलाफ अपनी खुद की लड़ाई लड़ रहा है, जबकि जरूरत सामूहिक वैश्विक प्रतिक्रिया की थी। इससे वे देश प्रभावित हो रहे हैं, जहां संसाधन कम हैं।
वायरस के विस्फोट की वजह से तकनीक तक पहुंच, आय के स्तर और जीविका से जुड़ी असुरक्षा आदि से संबंधित मौजूदा असमानताओं पर भी ध्यान गया है। कुल मिलाकर कोरोना वायरस हमारे लिए ‘शॉक ट्रीटमेंट’ की तरह है। यह हमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और वैश्विक दृष्टिकोणों को रीसेट करने के अलावा एक-दूसरे और प्रकृति संग एकता से रहने की भी याद दिला रहा है।
आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
from Dainik Bhaskar
0 Comments