अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है। अमेरिका में जैसे हिंसक-अहिंसक प्रदर्शन एक हफ्ते से हो रहे हैं, वैसे 62 साल में कभी नहीं देखे गए। उस समय अश्वेतों के विश्व प्रसिद्ध नेता मार्टिन लूथर किंग की हत्या एक गोरे ने कर दी थी।
4 अप्रैल 1968 को हुए इस हत्याकांड के बाद अमेरिका में हुए प्रदर्शनों में दर्जनों लोग मारे गए और हजारों गिरफ्तार हुए। अब भी ट्रम्प ने धमकी दी है कि यदि ये प्रदर्शन नहीं रुके तो उन्हें अमेरिकी फौज को सड़कों पर दौड़ाना होगा।
अमेरिका के लगभग 100 शहरों में फैल चुके आंदोलन की खूबी यह है कि इसमें श्वेत और अश्वेत लोग, दोनों दिखाई पड़ रहे हैं। आखिर क्या बात है कि अमेरिका ही नहीं, यूरोप और इस्लामी देशों में भी ये प्रदर्शन हो रहे हैं? इस समय अमेरिका में कोरोना का प्रकोप जितना भयंकर है, उतना दुनिया में कहीं नहीं है।
अमेरिका खुद को सबसे अधिक सुसभ्य, संपन्न और लोकतांत्रिक देश कहता है, फिर भी वहां ऐसे प्रदर्शन क्यों? ऊपरी तौर पर देखें तो कारण बहुत मामूली है। एक अश्वेत व्यक्ति की हत्या! यह हत्या हुई मिनियापोलिस के बाजार में, जहां अश्वेत जॉर्ज फ्लॉएड पर एक नकली नोट भुनाने का आरोप लगा।
एक गोरे पुलिस अफसर डेरेक चौविन ने उसे पकड़कर जमीन पर पटका और उसकी गर्दन अपने घुटने से लगभग 9 मिनिट तक दबाए रखी। वह चीखता रहा कि उसका दम घुट रहा है। इस दुर्घटना का वीडियो वायरल हुआ तो सारे अमेरिका में आक्रोश भड़क उठा।
यह मामला सिर्फ एक अश्वेत की हत्या का नहीं रहा, इसने अमेरिका के पिछले 250-300 वर्षों के रंगभेद के इतिहास की परतों को उधेड़ दिया।
जब यूरोप के श्वेत आप्रवासियों ने अमेरिका में बसना शुरू किया तो वे अफ्रीका से हजारों-लाखों अश्वेतों को गुलाम बनाकर वहां ले गए। वे मजदूर नहीं, गुलाम थे। इन अश्वेत गुलामों के लिए घर, भोजन, कपड़ा, शिक्षा, दवा और सुरक्षा, कुछ भी ठीक नहीं था। इन्हें जानवरों की तरह खरीदा और बेचा जाता था।
1790 में अमेरिकी जनसंख्या में अश्वेतों की संख्या 19.3% थी लेकिन उनके नागरिक अधिकार 1 प्रतिशत भी नहीं थे। न उन्हें वोट देने का अधिकार था, न अदालतों से न्याय पाने का और न ही इलाज करवाने का।
यदि कोई गोरा उनकी किसी बात से नाराज हो जाए तो अश्वेतों को पकड़कर जिंदा जला देते थे, पेड़ों पर लटकाकर फांसी दे दी जाती थी या कुंओं में धक्का दे देते थे। इसके बावजूद अमेरिका का दावा रहा है कि वह दुनिया का सबसे समतामूलक, स्वतंत्रतामूलक और न्यायमूलक राष्ट्र है।
राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के जमाने में चले गृहयुद्ध (1861-1865) के कारण अमेरिकी संविधान में संशोधन हुए और अश्वेतों की गुलामी 1865 में खत्म हुई। उन्हें बराबरी के अधिकर मिले लेकिन अभी 10-12 साल भी पूरे नहीं हुए थे कि अमेरिका के कई राज्यों ने उनके ये अधिकार छीन लिए। अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस डकैती पर 1896 के अपने एक फैसले में मुहर लगा दी।
तब से अब तक अमेरिका के अश्वेत लोग अपने अधिकारों के लिए निरंतर संषर्घ कर रहे हैं। 1956 में अलाबामा के मोंटगोमरी शहर में रोज़ा पार्क्स नामक एक अश्वेत औरत ने एक गोरे आदमी के लिए बस में सीट खाली नहीं की, इसे लेकर वहां जबर्दस्त आंदोलन चला।
इस रंगभेद-विरोधी आंदोलन ने मार्टिन लूथर किंग जैसे महान अश्वेत नेता पैदा किए। अमेरिका के ज्यादातर राज्यों में कानूनी तौर पर रंगभेद नहीं है लेकिन अमेरिकी समाज अभी भी दो हिस्सों में बंटा हुआ साफ-साफ दिखाई पड़ता है।
इस समय अमेरिका के 33 करोड़ लोगों में अश्वेतों की संख्या लगभग 4 करोड़ है लेकिन ये अश्वेत लोग सबसे ज्यादा विपन्न, वंचित और उपेक्षित हैं। ज्यादातर हाड़तोड़ काम, जिनकी मजदूरी काफी कम होती है, ये अश्वेत लोग ही करते हुए दिखाई पड़ते हैं।
कोरोना से मरनेवालों में सबसे ज्यादा संख्या इन्हीं अश्वेत लोगों की है। अश्वेत 50% जबकि गोरे 20% ही शिकार होते हैं, कोरोना के! अश्वेत लोग गरीबी, गंदगी, अशिक्षा और अभाव में अपने दिन काटते हैं।
अमेरिका की जेलें अश्वेतों से भरी होती हैं। यह ठीक है कि बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति पद तक पहुंच गए लेकिन 51 साल पहले जब मैं न्यूयार्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. कर रहा था तो न तो मेरा कोई अध्यापक अश्वेत था और न ही कोई सहपाठी! भारतीय दलितों से भी अधिक दुर्दशा अमेरिकी अश्वेतों की है।
डोनाल्ड ट्रम्प ने जॉर्ज फ्लॉएड के हत्यारे को दंडित करने की बात जोरों से कही है लेकिन सबको पता है कि ट्रम्प किस मिजाज के आदमी हैं। वे बहुसंख्यक गोरों के थोक वोट पाने के लिए कोई भी कसर नहीं छोड़ेंगे। उनमें कोई ऐसा नैतिक बल दिखाई नहीं पड़ता कि वे अमेरिकी समाज को सहिष्णु बनने की प्रेरणा दे सकें। अमेरिका में फैले इस कोहराम के लिए ट्रम्प ‘एंटीफा’ नामक संगठन को दोषी बता रहे हैं। यूरोप में शुरू हुए इस एंटी-फासिस्ट संगठन के मत्थे ट्रम्प यह दोष मढ़ रहे हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि वे अमेरिकी-समाज की अंतर्धाराओं से आंख मूदे हुए हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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