नजरिया: ओली ने चीन के सहारे नेपाल की राजनीति को हिला दिया? इसके क्या नतीजा होगा और भारत के लिए इसके क्या मायने हैं

नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ‘ओली’ ने विरोधियों को अचानक धोबीपछाड़ मार दिया है। चलते बजट सत्र में उन्होंने नेपाली संसद के दोनों सदनों को स्थगित करवा दिया है। दोनों सदनों के अध्यक्ष को पता चले, उसके पहले ही नेपाल की राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी ने स्थगन के फैसले पर मुहर लगा दी।

संसद का यह सत्र अचानक इसलिए स्थगित किया गया है कि यदि वह चलता रहता तो शायद ओली की सरकार गिर जाती, क्योंकि उनकी सत्तारुढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के असंतुष्ट नेता नेपाली कांग्रेस और नेपाल की समाजवादी पार्टी से हाथ मिला लेते और ओली की सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करा लेते।
लेकिन यदि प्रतिद्वंद्वी कम्युनिस्ट नेता पुष्पकमल दहल प्रचंड और माधव नेपाल डाल-डाल तो ओली पात-पात निकले। संसद-सत्र स्थगित करवाकर उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव की आशंका को निर्मूल कर दिया। अब वे अध्यादेश जारी करवाना चाहते हैं, जिसके कारण उन्हें सुविधा मिल जाएगी कि वे पार्टी को आसानी से तोड़ सकें।

अभी कानून ऐसा है कि यदि पार्टी तोड़नी है तो पार्टी की संसदीय समिति, स्थायी समिति, दोनों के 40% सदस्य साथ होने चाहिए। ओली अध्यादेश द्वारा कानून में ऐसा संशोधन करवाना चाहते हैं कि दोनों समितियों में से किसी एक समिति के 40% सदस्य ही काफी हों।
ऐसा इसलिए कि पार्टी की स्थायी समिति के 43 सदस्यों में से लगभग 30 ओली के विरोधी हैं लेकिन संसदीय समिति में उनका स्पष्ट बहुमत है। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के ज्यादातर सदस्य भी ओली समर्थक हैं। यदि पार्टी टूटी तो भी ओली बने रह सकते हैं क्योंकि यदि कुछ सांसद प्रचंड और माधव नेपाल के साथ चले भी गए तो अधिकतर ओली के साथ रहेंगे।

और फिर ओली नेपाली कांग्रेस के 63 और जनता समाजवादी पार्टी के 34 सदस्यों पर डोरे डालेंगे। दूसरे शब्दों में पार्टी को तोड़ने पर ओली के प्रतिद्वंद्वियों को लाभ की संभावना कम ही है। वे चाहते हैं कि पार्टी न टूटे लेकिन ओली पर इतना दबाव डालें कि वे घबराकर इस्तीफा दे दें।
प्रचंड और माधव नेपाल ने ओली पर दो तरह प्रहार किया। पहले तो उन्हें अमेरिका की जी-हुजूरी करनेवाले प्रधानमंत्री सिद्ध करने की कोशिश की गई और फिर भारत की खुशामद करनेवाले नेता के तौर पर चित्रित किया गया। ये दोनों पहलू कम्युनिस्ट-विरोधी हैं। कम्युनिस्ट होकर ओली ट्रम्प के घोर पूंजीवादी अमेरिका से सहयोग कर रहे हैं और मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार के खिलाफ मौन धारण किए हुए हैं।

ओली सरकार ने नेपाल में सड़क-निर्माण और बिजली-प्रेषण लाइन डालने के लिए अमेरिका से 50 करोड़ डाॅलर का अनुदान क्यों ले लिया और भारत के विरुद्ध वह लिपुलेख-सीमा के बारे में नरम रवैया क्यों अपनाए हुए हैं ? ओली भारत के सामने सीना तानकर क्यों खड़े नहीं होते ?
लिपुलेख-कालापानी क्षेत्र के बारे में जो ओली पहले काफी संयत भाषा प्रयोग कर रहे थे और भारत से राजनयिक स्तर पर सारे मामले को सुलझाने की बात कर रहे थे, उन्होंने भारत पर ऐसे व्यंग्य-बाण बरसाने शुरू कर दिए, जो मेरी याद में किसी अन्य नेपाली प्रधानमंत्री ने नहीं बरसाए।

उन्होंने कहा कि भारत का नारा ‘सत्यमेव जयते’ की बजाय ‘सिंहमेव जयते’ है यानि भारत दंड के जोर पर जमीन हथियाना चाहता है। उन्होंने पिछले दिनों भारत पर यह आरोप भी जड़ दिया कि भारत सरकार उनकी सरकार को गिराने का षड़यंत्र रच रही है।
अपने विरोधियों का मुंह बंद करने के लिए उन्होंने नए ब्रह्मास्त्र का आविष्कार किया। वह था, नेपाली संविधान में संशोधन। यह संशोधन उस नए नक्शे को पास करने के लिए किया गया, जिसमें 1816 की सुगौली संधि के द्वारा भारत को दिए गए क्षेत्रों- लिपुलेख-कालापानी आदि को नेपाल की सीमा में दिखा दिया है।

यह संशोधन नेपाल की संसद में सर्वानुमति से पारित हो गया। सत्तारुढ़ कम्युनिस्ट पार्टी में जो नेता ओली-विरोधी थे, उन्हें और अन्य सभी विरोधी दलों को ओली के इस संशोधन का समर्थन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। ओली ने सबकी हवा निकाल दी।
लेकिन ओली के सामने तुरंत ही दो मुद्दे खड़े कर दिए गए। एक तो प्रचंड और माधव नेपाल ने और दूसरा नेपाली कांग्रेस ने! जो प्रचंड भारत-विरोध का झंडा उठाए हुए थे, उन्होंने मांग की कि ओली सिद्ध करें कि भारत उनके विरुद्ध षड़यंत्र कर रहा है और नेपाली कांग्रेस संसद में एक प्रस्ताव ले आई कि चीन ने नेपाल के कुछ गांवों को अपनी सीमा में कैसे मिला लिया? ओली ने अपने विरोधियों के इस चौके पर छक्का मार दिया। इन सब अटपटे सवालों का जवाब देने की बजाय उन्होंने संसद का सत्र ही भंग करवा दिया।

यदि अपनी सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी में वे अपने विरोधियों को चित नहीं कर पाए तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे नेपाल की संसद भंग करके नए चुनाव ही करवा दें। भारत को उन्होंने चाहे चोट पहुंचाने की कोशिश की है लेकिन यह तो सुनिश्चित है कि चीन पूरी तरह से ओली का साथ दे रहा है। ओली रहें या जाएं, नेपाल की राजनीति इस समय डावांडोल है। ओली ने अपने विरोधियों को फिलहाल तगड़ी गोली दे दी है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष।


from Dainik Bhaskar

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