ऐसे देश की कल्पना कीजिए जो एक बड़ी पश्चिमी आर्थिक शक्ति है, जहां कोरोना देर से पहुंचा, लेकिन सरकार इसे नकारने और देर करने की बजाय जल्दी सक्रिय हो गई। जो टेस्ट और कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग के लिए तैयार था और उसने मृत्युदर को किसी भी पश्चिमी औद्योगिक राष्ट्र की तुलना में कम बनाए रखा। जिसे सीमित लॉकडाउन ही करना पड़ा. जिससे बेरोजगारी 6% तक ही सीमित रही और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिलीं तारीफों के बीच देश की बोरियत से भरी नेता की लोकप्रियता 40% से बढ़कर 70% पर पहुंच गई।
राष्ट्रपति ट्रम्प के अमेरिका से पूरी तरह विपरीत है चांसलर एंजेला मर्केल का जर्मनी। उनकी बढ़ती लोकप्रियता से अति दक्षिणपंथी और वामपंथी, दोनों ही राजनीतिक रूप से हाशिये पर आ गए हैं। जर्मन यूनियनों ने अपने बॉसेस के साथ काम कर फैक्टरियों को खुला रखा। मर्केल सरकार ने महामारी रोकने के लिए जर्मन राज्यों और सबसे ज्यादा प्रभावित देशों के लिए रिकवरी फंड बनाने के लिए सामंजस्य बनाया। जर्मनी की ये मजबूतियां बताती हैं कि बड़ी महामारी के बाद की दुनिया में वह तेजी से बढ़ने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था होगा।
नए आर्थिक परिदृश्य में कौन से राष्ट्र चमकेंगे? तकनीक में प्रभुत्व के बावजूद अमेरिका और चीन ने बहुत कर्ज उठा रखा है और महामारी को न संभाल पाने पर उनकी सरकारों की आलोचना हो रही है। उभरती निर्यात शक्ति के रूप में वियतनाम से उम्मीद है। वहां ऐसी सरकार है, जिसने वायरस को रास्ते में ही रोक लिया। रूस की भी लुभावनी अर्थव्यवस्था है, क्योंकि राष्ट्रपति पुतिन वर्षों से देश को विदेशी वित्तीय दबाव से बचाने के लिए काम कर रहे हैं। यह कदम विवैश्वीकृत दुनिया में जरूरी साबित होगा।
लेकिन जर्मनी के बड़े विजेता बनने की संभावना है। महामारी पर उसकी प्रतिक्रिया से उसकी मजबूती सामने आई है। जैसे प्रभावी सरकार, कम कर्ज, औद्योगिक गुणवत्ता की छवि जिससे वैश्विक व्यापार गिरने पर भी उसका निर्यात सुरक्षित रहा और अमेरिकी तथा चीनी इंटरनेट कंपनियों के प्रभुत्व वाली दुनिया में घरेलू टेक कंपनियां बनाने की बढ़ती क्षमता। जहां दूसरे देश चिंता कर रहे हैं कि जो नौकरियां गई हैं, वे शायद वापस न आएं, वहीं सदियों पुराने सरकारी तंत्र ‘कुरज़रबइट’ की मदद से ज्यादातर जर्मन कर्मचारियों की नौकरी बची रही। इस तंत्र में अस्थायी संकट के दौरान कर्मचारियों को कम घंटों के लिए नौकरी पर रखे रहने के लिए सरकार कंपनियों को पैसा देती है।
जर्मनी कुरज़रबइट अपनी मशहूर मितव्ययिता के कारण दे पाया। जब मर्केल यूरोपीय संघ के साथियों से मितव्ययिता पर जोर देने को कहती थीं तो ‘स्वाबिआई बीवी’ कहकर उनका मजाक उड़ाया जाता था, जिसका मतलब ऐसा कंजूस जर्मन होता है, जो डंपलिंग बनाने के लिए बासी ब्रेड बचाकर रख लेता है। वे अब नहीं हंस रहे हैं। चूंकि जर्मनी सरकार सरप्लस के साथ महामारी में गया था, इसलिए वह परिवारों को सीधे पैसे, टैक्स कटौती, बिजनेस लोन और अन्य मदद देकर लॉकडाउन में गई अर्थव्यवस्था की मदद कर पाया। यह मदद जीडीपी का 55% थी। वह पड़ोसी देशों को भी पहली बार आपातकालीन प्रोत्साहन पैकेज दे सका। वरना पहले शिकायत की जाती रही है कि जर्मनी की कंजूसी पूरे महाद्वीप को दुखी करती है।
फिर भी जर्मनी ने संतुलित बजट की अपनी प्रतिबद्धता को छोड़ा नहीं है। चूंकि ये सारे खर्च बचत में से किए जाएंगे, इसलिए जर्मनी का सार्वजनिक कर्ज बढ़ सकता है, लेकिन जीडीपी का सिर्फ 82% ही, जो अमेरिका और अन्य विकसित देशों के कर्ज के भार से बहुत कम है, जिन्होंने आर्थिक राहत पैकेज पर बहुत कम खर्च किया।
शंका जताने वाले कहते हैं कि धीमे होते वैश्विक व्यापार के दौर में जर्मनी खतरनाक ढंग से औद्योगिक निर्यात पर निर्भर हो गया है, खासतौर पर चीन पर। इसीलिए जर्मनी अपने शीर्ष निर्यातकों यानी बड़ी कार कंपनियों के आधुनिकीकरण पर जोर दे रहा है। वह कार निर्माताओं पर कंबस्शन इंजन से हटकर भविष्य की इलेक्ट्रिक कारें बनाने का दबाव बना रहा है। जर्मनी बड़ी टेक शक्ति बनने पर भी जोर दे रहा है। वह रिसर्च और डेवलपमेंट पर अमेरिका जितना ही (जीडीपी का करीब 3%) खर्च कर रहा है और लंबे समय में सिलिकॉन वैली जैसा इकोसिस्टम बनाने की योजना रखता है। जर्मन आर्थिक बचाव योजना में 56 बिलियन डॉलर उन स्टार्टअप्स के लिए हैं जो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और अन्य नई तकनीकों से पारंपरिक उद्योगों को डिजिटाइज कर सकें। फ्रांस के साथ ही जर्मनी ने भी हाल ही में अमेरिका और चीन के सामने यूरोपीय इंटरनेट क्लाउड खड़ा करने की घोषणा की है।
जर्मनी बूढ़ा होता, रूढ़ीवादी समाज है, लेकिन वे आलोचक पहले भी गलत साबित हुए हैं जो मानते हैं कि जर्मनी बदलाव में धीमा है। 2000 के दशक की शुरुआत में जर्मनी को ‘यूरोप का बीमार आदमी’ कहते थे, लेकिन उसने लेबर मार्केट सुधार अपनाए जिससे वह फिर से महाद्वीप की सबसे स्थिर अर्थव्यवस्था बन गया। जैसे-जैसे महामारी डिजिटलाइजेशन और विवैश्वीकरण की गति बढ़ा रही है और दुनिया के कर्जों को चला रही है, बाकियों की तुलना में जर्मनी इन चुनौतियों का सामना करने में कमजोरियों की कमी और उन्हें संभालने में सक्षम सरकार के कारण सबसे आगे निकलता दिख रहा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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