बॉलीवुड एक्टर पंकज त्रिपाठी की अपकमिंग फिल्म 'कागज' का ट्रेलर रिलीज हो चुका है। हल्के-फुल्के अंदाज में इस फिल्म की कहानी एक ऐसे व्यक्ति की तकलीफ बयां करती है, जो जीवित तो है, लेकिन कागजों (डॉक्यूमेंट) में उसकी मौत हो चुकी है। उस शख्स का नाम लाल बिहारी है। उन्होंने बताया कि फिल्म के सेट पर वह सिर्फ पहले दिन गए थे, उसके बाद से वह नहीं गए। उस दिन साइकिल पर बैठकर पंकज त्रिपाठी के साथ शॉट दिया था।
फिलहाल यहां बात हो रही है लाल बिहारी के संघर्षों की, तो चलते हैं उनके घर। वे आजमगढ़ जिला मुख्यालय से 20 किमी दूर अमीलो गांव में रहते हैं। बातचीत के दौरान उनके घर के दरवाजे पर लगे बोर्ड पर नजर पड़ी, तो उस पर लाल बिहारी 'मृतक' लिखा हुआ था। उन्होंने बताया कि मैंने खुद को जिंदा साबित करने के लिए विधानसभा में पर्चे फेंके। 2 पूर्व प्रधानमंत्रियों के खिलाफ चुनाव लड़ा। 100 से ज्यादा बार धरना दिया, लेकिन खुद को जिंदा साबित करने में 18 साल लग गए।
मां की गोद में ही था पिता गुजर गए, यहीं से शुरू हुआ संघर्ष
उन्होंने बताया कि तकरीबन 7-8 महीने का था, तब मेरे पिता गुजर गए। तमाम तकलीफों के बीच मेरी मां मुझे लेकर ननिहाल आ गई। दुखों के बीच मैं बड़ा हुआ। कुछ बड़ा हुआ, तो बनारसी साड़ी की बुनाई का काम करने लगा। पेट भरने के इंतजाम में पढ़ाई करने का मौका नहीं मिला। बीच-बीच में मैं अपने ददिहाल भी जाया करता था। मेरा ददिहाल मुबारकपुर के खलीलाबाद गांव में है।
लगभग 20-21 बरस का था, तब मैंने सोचा कि क्यों न एक बनारसी साड़ी का कारखाना लगाया जाए। गांव में मेरे पिता के नाम से एक एकड़ जमीन थी, वह मेरे नाम विरासत पर थी। लेकिन, जब हम लोन लेने के लिए कागज जुटाने लगे, तो पता चला कि 30 जुलाई 1976 को न्यायालय नायब तहसीलदार सदर, आजमगढ़ ने मुझे कागजों में मृत घोषित कर जमीन मेरे चचेरे भाइयों के नाम कर दी है। फिर यहीं से मेरा संघर्ष शुरू हुआ।
उन्होंने बताया कि रिश्तेदार वैसे तो मुझसे मिलते-जुलते थे, लेकिन जब जमीन की बात आती थी, तो वह उसे देने से इनकार कर देते थे। हालांकि, यह कहीं रिकॉर्ड में नहीं है कि किसी रिश्तेदार ने मुझे जबरन मृत घोषित करवाया। लेकिन, बिना उनके यह संभव नहीं है। धीरे-धीरे उन रिश्तों से लगाव भी खत्म हो गया।
'मृतक' के नाम पर लोग मेरा मजाक उड़ाते थे
उन्होंने बताया कि मैंने अपनी पीड़ा कई लोगों को बताई। गांव वालों से बात की, लेकिन मुझे समझने की बजाय सबने मजाक उडाना शुरू कर दिया। तब मैंने ठान लिया कि भले मुझे जमीन न मिले, लेकिन मैं अपने नाम के आगे से मृतक शब्द जरूर हटाऊंगा। लोगों ने राय दी कि कोर्ट में जाइए। मैंने वकीलों से बात की, तो पता चला कि इसमें कितना वक्त लगेगा? यह कोई नहीं कह सकता है। इसमें मुकदमा चलेगा। फिर मैंने सोचा कि मैं कब तक लडूंगा?
उन्होंने बताया कि फिर मैंने न्यायिक प्रक्रिया में न जाने का फैसला किया। इसलिए मैंने अफसरों के चक्कर काटने शुरू किए। वहां दरख्वास्त देनी शुरू की, लेकिन किसी भी तरह की राहत नहीं मिलती दिख रही थी। हर बार जांच होती और फिर मामला दब जाता। आजमगढ़ का ऐसा कोई अफसर नहीं बचा होगा, जिसे मैंने शिकायती पत्र न दिया हो। इसके बाद जब सबका रवैया एक जैसा ही दिखा, तो मैंने अलग-अलग तरीके अपनाने शुरू किए।
1986 में विधानसभा में पर्चा फेंका फिर भी जिंदा साबित न हो पाया
उन्होंने बताया कि कागजों पर जिंदा होने की लड़ाई शुरू हुए 10 साल बीत चुके थे। ये बात 1986 की है। मैं अफसरों के पीछे दौड़-दौड़कर परेशान हो गया था। तब मेरे गुरू स्वर्गीय श्याम लाल कनौजिया जो विधायक रहे हैं, उन्होंने एक आइडिया दिया। उन्होंने कहा कि जब कोई नहीं सुन रहा है तो हंगामा करो। उस समय विधानसभा सत्र चल रहा था। मैंने कांग्रेस के एक विधायक काजी कलीमुर्रहमान से अपना पास बनवाया और दर्शक दीर्घा नंबर 4 में जाकर बैठ गया।
उन्होंने बताया कि मेरे पास हैंड बिल था, जिसमे मैंने अपनी समस्या लिखी हुई थी। जैसे ही विधानसभा सत्र शुरू हुआ, मैंने दर्शक दीर्घा से उठकर हैंडबिल विधानसभा में फेंक दिया। साथ ही नारे भी लगाए। मुझे तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। तकरीबन 7 से 8 घंटे तक पूछताछ चली। ड्यूटी पर रहे सुरक्षा प्रमुख को सस्पेंड कर दिया गया। टीस इस बात की रही कि जिस जगह कानून बनते हैं, वहां मैंने अपनी समस्या बताई, लेकिन कोई हल नहीं निकला। नेताओं और अफसरों ने भी यहां खेल किया। विधानसभा की कार्यवाही रजिस्टर में मेरा नाम नहीं लिखा गया। उसमें लिखा गया कि विधानसभा में अव्यवस्था फैलाने वाला युवक गिरफ्तार किया गया।
100 से ज्यादा बार धरना दिया
उन्होंने बताया कि खुद को जिंदा साबित करने के लिए आजमगढ़, लखनऊ और दिल्ली में तकरीबन 100 से ज्यादा बार धरना दिया। दिल्ली में 56 घंटे तक अनशन किया। इन सबके बावजूद राजस्व विभाग मुझे जिंदा मानने को तैयार नहीं था। यही नहीं, अपनी पत्नी के नाम से मैंने विधवा पेंशन का फॉर्म भी भरा, लेकिन उसे भी रिजेक्ट कर दिया गया। अधिकारी मृतक के नाम पर मेरा मजाक उड़ाया करते थे।
पूर्व PM वीपी सिंह और राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव लड़े
उन्होंने बताया कि लाख जतन करने के बाद भी जब मुझे अनसुना कर दिया गया, तब मैंने 1988 में इलाहाबाद से पूर्व PM वीपी सिंह और कांशीराम के खिलाफ चुनाव लड़ा। यही नहीं, 1989 में पूर्व PM राजीव गांधी के खिलाफ भी अमेठी से चुनाव लड़ा। इन चुनावों में अपनी समस्या का प्रमुखता से प्रचार करने के बाद भी मेरी समस्या का निदान नहीं हुआ। लाल बिहारी लगभग 6 चुनाव लड़ चुके हैं, जिसमें 3 बार मुबारकपुर सीट से विधानसभा चुनाव भी शामिल है।
18 साल बाद जिंदा साबित हुआ
उन्होंने बताया कि अधिकारी चाहे तो क्या नहीं कर सकता है? 1994 में मैंने हर अधिकारी के ऑफिस में एक नोटिस भेजा कि अब मैं खुद तहसीलदार की कुर्सी पर बैठकर अपना न्याय करूंगा। तब आजमगढ़ में एक अपर मुख्य राजस्व अधिकारी कृष्णा श्रीवास्तव थे। उन्होंने मेरी समस्या देखी, तो वह भावुक हो गए। मुझे बुलाया और बोले कि मेरा ट्रांसफर होने वाला है। लेकिन हम अगर दस दिन यहां रह गए, तो तुम्हारी समस्या का निदान हो जाएगा।
उन्होंने तहसीलदार से रिपोर्ट मांगी। तब तहसीलदार ने एक लेखपाल कलीम अहमद को लगाया। उसने अमीलों से लेकर ददिहाल खलीलाबाद तक चक्कर लगाया और जांच की। अंत में जब मैंने उन्हें पैसे देने की कोशिश की, तो उन्होंने कहा कि आप खुद परेशान हो, मैं पैसे क्या लूंगा? जब उन्होंने मेरे जिंदा होने की रिपोर्ट दी, तो रिपोर्ट तहसील से गायब हो गई। आखिर में फिर किसी तरह से वह रिपोर्ट सबमिट हुई। तब उन्होंने मुझे 30 जून 1994 को कागजों पर जिंदा घोषित किया।
अनपढ़ और गरीब था, लेकिन जमीन बेच कर पूरी लड़ाई लड़ी
उन्होंने बताया कि समय बहुत कुछ सिखाता है। मैं अनपढ़ था। गरीब था। मेरी मां और पत्नी को विश्वास नहीं था कि मैं लड़ाई लड़ पाऊंगा, लेकिन मैंने करके दिखाया। मेरे पास अमीलों में कुछ जमीन थी। उसका थोड़ा-थोड़ा हिस्सा बेच कर मैं लड़ा। उस जमीन की कीमत आज लगभग 5 करोड़ है और मैंने उसे डेढ़-दो लाख में बेची थी। जबकि, जो जमीन मुझे मिली आज उसकी कीमत 5 लाख है और उसे भी मैंने अपने चचेरे भाइयों को दे दिया, जो हमसे वह वह जमीन चाहते थे।
हालांकि, वहां थोड़ी सी जमीन पर जीवित मृतक स्तंभ लाल बिहारी मृतक की स्मृति में बनवा रहा हूं। लाल बिहारी ने 1980 में मृतक संघ बनाया। जिसके बाद से उनकी लड़ाई अब भी जारी है और वे पीड़ितों को न्याय दिलाते हैं। उन्होंने बताया कि अभी तक सैकड़ों लोगों को न्याय दिलाने में कामयाब हो चुका हूं।
2003 में हुआ था फिल्म बनाने का ऐलान
पिछले दिनों लखनऊ पहुंचे सतीश कौशिक ने बताया कि यह कहानी मेरे दिल के करीब थी। 2003 में मैंने फिल्म बनाने का निर्णय लिया था। हालांकि किन्ही वजहों से देर होती रही। लेकिन अब यह 7 जनवरी को ओटीटी पर प्रदर्शित होगी। इसमें पंकज त्रिपाठी मुख्य भूमिका में नजर आएंगे। पूरी फिल्म UP के सीतापुर में शूट हुई है।
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