गैंगरेप के मामले में उत्तर प्रदेश एक बार फिर चर्चा में है। बदायूं के इस वाकये में कुछ नया नहीं। चना-मुर्रा की भी उतनी खपत नहीं, जितने रोजाना रेप होते होंगे। तो खबर की तफसील छोड़कर सीधे मुद्दे पर आते हैं। हुआ यूं कि मृतका के परिवार को ढांढस देने राष्ट्रीय महिला आयोग की एक सदस्य पहुंची। तसल्ली देते हुए उनकी जबान फिसल गई और फिर जो सुनाई पड़ा, वो औरतों का अपने ही मुंह पर तमाचा है। सदस्य ने औरतों को ही सलाह दे डाली कि उन्हें शाम के वक्त घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, या निकलना ही पड़े तो लड़का-बच्चा साथ लेकर जाना चाहिए।
महिला आयोग की हरेक सदस्य पूरे मुल्क की महिलाओं का चेहरा होती है। ऐसे में ये बयान एक डरी और हार मान चुकी मां की समझाइश जैसा है। 'अंधेरा होने से पहले घर लौट आना'। इसके पीछे सब-स्क्रिप्ट चलती है- 'अगर देर हुई तो रेप तय है'।
दिल्ली मेट्रो की सीट की तरह ही औरत-मर्द का समय भी बंट गया है। कोच की दो-चार सीटों पर औरतों का तख्त लगाकर पक्का कर दिया गया कि बाकी तमाम सीटों पर मर्दों का कब्जा रहे। अगर सारी सीटें खाली हों और कोई औरत मन मुताबिक जगह पर बैठ जाए तो बगल वाला पुरुष ठहाका मारता है- आप अपनी सीट पर जाकर क्यों नहीं बैठ जातीं!
मर्दानी दुनिया ने अलिखित कायदा बना रखा है कि फलां से फलां समय तक ही औरत बाहर रह सकती है। सुई के उस पार जाते ही खतरे टिक-टिकाने लगते हैं और घर लौटते कदमों की रफ्तार बढ़ जाती है। औरतें चाहें कितनी ही आधुनिक या मजबूत दिखें, लेकिन शाम और अकेलेपन को लेकर सब डरती हैं। फिर चाहे वो हिंदुस्तान की गहरी काली आंखों वाली दक्षिणी औरतें हों, नींबू की फांक जैसी शोख उत्तर-पूर्वी लड़कियां, या हर मौसम काले लिबास पहने पश्चिमी लड़कियां। हरेक ने समझाइश झेली। हरेक ने डर जिया।
चलिए, इसे समझने के लिए एक मजे का खेल खेलें। मर्दों से पूछते हैं कि वे रात 11 बजे घर लौटते हुए अपनी सेफ्टी के लिए क्या लेकर चलते हैं? शायद उन्हें ये कोई 'ट्रिक' सवाल लगे। शायद वे हंस पड़ें, या भड़क जाएं। हो सकता है एकाध, फुसफुसाती आवाज में कोई वाकया भी बता दे।
अब यही सवाल 'औरतों' से करें। जवाब आएंगे। इतने धड़ाधड़ कि आप सकते में आ जाएं। शाम की शिफ्ट टालती हूं... से लेकर मैं अपने बैग में क्या-क्या लेकर चलती हूं तक ढेर जवाब। मैं अपनी बताती हूं। दफ्तर से लौटते हुए मुट्ठियां खास अंदाज में कसी होती हैं। एक 'अनचाहा टच' और मैं हमला कर दूं, कुछ ऐसे। रास्ते पर चलती कम, दौड़ती ज्यादा हूं। घूरने को नजरअंदाज करने में मेरा सानी नहीं। भद्दे इशारे हों तो मोबाइल में घुस जाती हूं। इससे भी काम न बने तो गाड़ियों से भरी सड़क पर आ जाती हूं। हादसे भी रेप से कुछ बेहतर ही होंगे!
ये डर मेरे अकेले का नहीं। तमाम लड़कियां इस डर को बचपन से जीती हैं। अक्षरज्ञान के जरा बाद ही उन्हें ये ज्ञान भी पिलाया जाता है कि बचो, बाहर दुनिया खूंखार है। बचो, कि तुम औरत हो। साल 2019 में सोशल मीडिया पर किसी ने एक सवाल उछाला- 'लड़कियों, तुम क्या करोगी अगर रात 9 बजे के बाद मर्दों के लिए कर्फ्यू लग जाए'। सवाल के जवाब में लड़कियों ने अपनी छोटी-छोटी ख्वाहिशें बताईं, जो अंधेरी सड़कों पर मर्दानी हुकूमत के कारण ताबूत तक जाती हैं।
साल 2010 की शुरुआत में मैं पहली बार रात 1 बजे के आसपास बाहर निकली। अकेली। लैंप पोस्ट के नीचे आंखें मूंदे बैठी रही। आसपास की आवाजें धीरे-धीरे गुम हो चलीं। रोशनी बुझ गई। बचा तो बस नमी लिए हवा का अहसास और जिंदा होने का अहसास। वो पहली रात थी, जब मैंने बगैर किसी मर्द संरक्षक के खुली हवा में रात देखी और साबुत अपने कमरे में लौटी।
वो यूनिवर्सिटी कैंपस था। किताबों और तजुर्बों से भरा हुआ। उसे पता था कि रात और सड़कें सबकी हैं। मैं बची रही, क्योंकि वहां ढेरों-ढेर लड़कियां थीं। लाइब्रेरी में पढ़ती। पेड़ के नीचे मोबाइल पर बतियाती। घास पर चादर डाले सुस्ताती। हाथ में कॉफी फ्लास्क लिए किसी बेहद पेचीदा विषय पर एक्सपर्ट की तरह बताती। वो रात सुरक्षित थी, क्योंकि वो रात भी खुद में साबुत थी- औरतों और मर्दों से गुंथी हुई।
शायद बदायूं में 50 साल की वो मां जिंदा होती अगर वक्त का ऐसा बंटवारा न होता। वो जिंदा होती अगर उसे और रेप करने वालों को बचपन में ही बराबरी की सीख मिल जाती। तब अपने चुने वक्त पर बाहर निकलने-भर से किसी की हिम्मत नहीं होती कि उसे छू भी सके। वो औरत यकीनन जिंदा होती, अगर महिला आयोग की माननीय सदस्य और ऊंची कुर्सियों पर बैठे उन जैसे लोग समझाइश की बजाए कार्रवाई करवाते। बदायूं की वो औरत मौत पाकर खबर बनने की बजाए एक आम जिंदगी जीती होती अगर औरतों का अकेले बाहर निकलना 'एडवेंचर' न होता।
जब तक दुनिया में औरतें रहेंगी, रेप होते रहेंगे। ये हम नहीं, औरतों के साथ हो रहे हादसे कहते हैं। घर-बाहर, अंधेरा-उजाला- सब एक तरफ, औरत होना एक तरफ। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के मुताबिक साल 2019 में रोज रेप के 87 मामले आए। ये मामले समंदर में डूबे बर्फीले राक्षस की चोटी-भर है। 95 फीसदी मामले सामने नहीं आ पाते हैं। शायद बदायूं की मृतका बूढ़ी होकर डायबिटीज या दिल के दौरे में मरी होती, अगर हम औरतों को बोलना सिखाया गया होता।
बोलिए। बोलना मामूली बात नहीं। यकीन मानिए, आपकी गलती नहीं अगर आप देर रात बाहर थीं। अगर आपने अपने साथ मर्द-पुछल्ला ले जाने से मना कर दिया। भरोसा करना आपकी गलती नहीं। गलत है चुप रह जाना। बोलिए, जब आपके सामने अक्षरज्ञान के साथ गदबदे गालों वाली बच्ची को स्कर्ट संभालकर बैठने की छूट मिले। बोलिए, जब घड़ी का तोहफा आपके औरत होने की याद दिलाए। बोलिए और इस बार सुरक्षा की नहीं, आजादी की बात कीजिए।
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