कल्पना करें कि औरतें एकाएक सारे 'अदृश्य' काम करने से इनकार कर दें। जब आप जागें तो सुबह हवा में कॉफी की गंध नहीं होगी। नाश्ते की मेज तो होगी, लेकिन नाश्ता नहीं। बच्चों का स्कूल 'मिस' हो चुका होगा और वे भूख से कुलबुला रहे होंगे। जब तक उन्हें कुछ खिलाएंगे, दफ्तर का आधा दिन निकल चुका होगा। एक दिन की छुट्टी की एप्लिकेशन देकर आप कल की छुट्टी के बारे में सोच रहे होंगे। आप अकेले नहीं। आपके पड़ोसी और उसके पड़ोसी का भी यही हाल होगा।
स्कूल छूटेंगे। सड़कें थम जाएंगी। दफ्तर खाली पड़े होंगे। और आप अपनी एक दिन की तनख्वाह पर रो चुके हों तो देखिए कि पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था भरभराकर ढह चुकी होगी। ये नतीजा है महज एक दिन के लिए औरतों के 'अनपेड' काम करने से मना करने का। वो काम, जिसके बदले उन्हें न तो पगार मिलती है, न तारीफ और न ही इतवार की छुट्टी। इसी काम के 'अपने-आप' हो जाने के कारण मर्द दफ्तर जा पाते हैं और हर पहली तारीख को मूंछ उमेठते हुए जेब की टंकार सुनाते हैं।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस काम की कीमत तय करने की छोटी-सी कोशिश की। उसने सड़क हादसे में दिल्ली के एक जोड़े की मौत के बाद उनकी दो बेटियों को मिलने वाले मुआवजे में पिता के अलावा मां के घरेलू काम की कीमत भी जोड़ी। बता दें कि हाईकोर्ट ने मृतका के घरेलू होने के कारण उसके काम की कीमत नहीं जोड़ी थी। बाद में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां जज ने बाकायदा गिनाया कि दिनभर में औरतें क्या-क्या काम करती हैं। अगर यही काम बाहरी आदमी के करवाया जाए, तो इसकी कीमत इतनी हो जाएगी कि बाहर जाकर कमाने वाले की महीनेभर की कमाई पूरी न पड़े। कोर्ट ने बीमा कंपनी को घरेलू कामों का हवाला देते हुए आदेश दिया कि वो गृहिणी के कामों की कीमत लगा उसके मुताबिक भरपाई करे।
इधर सोशल मीडिया पर अलग ही जंजाल पसरा है। कमल हासन ने सोशल मीडिया पर महिलाओं को घरेलू काम का वेतन दिए जाने की बात कह दी। उनकी इस बात के समर्थन में कई लोग आ जुटे, जिनमें एक नाम शशि थरूर भी था। थरूर ने महिलाओं के घरेलू कामों के बदले हर महीने कोई तयशुदा राशि देने की वकालत की। इसपर अभिनेत्री कंगना रनौत बमक उठीं। उन्होंने सोशल मीडिया पर औरतों को अपने 'साम्राज्य की रानी' घोषित कर दिया। साथ ही औरतों का खलीफा बनते हुए खुद ही तय कर दिया कि उन्हें काम के बदले पैसे नहीं चाहिए। फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े मुद्दों पर बेबाकी से बोलती कंगना की बात कभी और। फिलहाल हम देखते हैं कि घर में औरतें ऐसा कौन-सा तीर मारती हैं, जिसके बदले उन्हें पगार देने की बात हो रही है।
यूएन (UN) की साल 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक, रोज 90 फीसदी औरतें औसतन 352 मिनट वो काम करती हैं, जिसके उन्हें पैसे नहीं मिलते। मर्द रोजाना इस पर 51 मिनट खर्चते हैं। चलिए, अब जरा देसी आंकड़ों पर नजर डालते हैं। साल 2019 में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग बताता है कि 15 से 59 साल की 21.8 फीसदी भारतीय औरतें ही 'पेड' काम कर पा रही हैं। दूसरी ओर 70.9 फीसदी पुरुष दफ्तर जाकर काम करते हैं। वर्ल्ड बैंक के मुताबिक, सवैतनिक काम के मामले में भारतीय औरतों के हालात गाजा, सीरिया, इराक और ईरान जितने खराब हैं। बता दें कि ये सारे देश दुनिया के वो टुकड़े हैं, जहां सूरज और चांद की किरणें भी बमबारी में झुलसी रहती हैं।
तो ऐसा क्यों है कि औरतें दफ्तर जाकर काम नहीं कर पा रहीं? क्या वे कम पढ़ी-लिखी हैं या फिर क्या वे काम करने से घबराती हैं? नहीं। इसकी वजह ये है कि अपने छोटे-से साम्राज्य को संभालने में औरतें होम हुई जाती हैं। परिवार नाम की प्रजा के भरण-पोषण की जिम्मेदारी उनकी है। नाते-रिश्तेदार यानी पड़ोसी राज्यों के सुख-दुख की खबर रखना उनका काम है। राजमहल यानी घर चमचमाता रहे, ये भी रानी को ही देखना है। अब जब रानी झाडू-फटका या बावर्चिन का काम करती रहेगी तो दफ्तर तो बेचारा मर्द ही जाएगा। तो वो राजपाठ रानी को सौंपकर आराम से दफ्तर निकल जाता है। लौटने पर पका-पकाया खाना और चांदनी बिछा बिस्तर मिलता है।
अगर कोई औरत हाथ बंटाने के नाम पर दहलीज पार कर जाए तो उसकी सजा पहले से मुकर्रर है। वो घर के काम खत्म करने के बाद ही बाहर कदम रखेगी और लौटने पर बिखरा हुआ घर और खाली पेट उसका इंतजार करते होंगे। इसपर पेप्सिको की पूर्व CEO इंदिरा नूई का एक किस्सा याद आता है। जिस रोज वो CEO बनीं, उस शाम घर लौटने पर मां इंतजार करती मिली। बेटी को देखते ही मां ने दन्न से दूध खत्म होने की शिकायत कर दी। नूई ने इंटरव्यू देते हुए बताया था कि कैसे मां ने उनके कंपनी का प्रमुख बनने की बात को अनसुना करते हुए कहा था कि औरत घर लौटे तो केवल मां-बेटी या बीवी ही होती है, बॉस नहीं। नूई ने ये किस्सा कामकाजी औरत की परेशानी से हवाले से सुनाया था।
अपना बचपन सुनाती हूं। स्कूल टीचर रही मेरी मां सुबह 5 बजे से चलना शुरू करती तो रात 11 से पहले कभी ठहरते नहीं देखा। कई बार देर रात नींद खुलती तो मां को चश्मा लगाए कॉपियां चेक करते या क्वेश्चन पेपर बनाते पाती। सुबह जिसे भी जैसी जरूरत हो, मां वैसी ही तैयारी के साथ मिलती। याद नहीं आता कि कभी भूले से पापा या मैंने ही किचन में चाय तक बनाई हो। खुद मां बनने पर अपने साथ वही हालात देखे तो मां से दिल में हजारों बार माफी मांग ली।
अगर हम सोचें कि दफ्तर के नौ घंटे औरतें मर्दों की दुनिया में बराबरी पर होती हैं, तो ये भी सरासर गलत है। न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी की मनोवैज्ञानिक मैडलिन हेलमैन ने इसपर एक रिसर्च की और नतीजे दफ्तरी बराबरी की पोल खोल देते हैं। इसमें डाटा और उदाहरणों समेत बताया गया कि कैसे दफ्तर में भी समान और ज्यादा काम के बदले औरतों को कम पगार मिलती है। मीटिंग में नोट्स लेने से लेकर कलीग्स की मदद जैसे काम औरतों के ही हिस्से आते हैं और प्रेजेंटेशन देने जैसा महीन और बड़ा काम मर्द ले लपकते हैं। तनख्वाह में तो अघोषित तौर पर दो श्रेणियां बन चुकी हैं - मर्दाना और जनाना पगार।
जैसे लड़कों के लिए वजन के हिसाब से कैलोरी तय होती है, वैसे ही दफ्तरों में जेंडर के मुताबिक सैलरी पक्की होती है। औरत चाहे कितनी ही काबिल हो, उसे मर्द के बराबर ओहदा पाने के लिए अतिरिक्त मेहनत करनी होती है। अब भी औरतों के 'अनपेड काम' जैसे खौफनाक मुद्दे पर बात इसलिए हो रही है ताकि जीडीपी की असल घट-बढ़ का अंदाजा लग सके। जिस भी मिनट अनुमान होगा कि औरतों के खाली बैठने की कीमत दफ्तरी मर्दानी मेहनत से ज्यादा है, उसी मिनट खतरे की जंजीर खींच दी जाएगी। कुल मिलाकर ये वो भविष्य है, जो भूतकाल में ही खत्म हो चुका। कम से कम बीते 10 सालों से चलती इस चर्चा को देखकर तो यही लगता है।
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